Tuesday, February 15, 2022

शेष है

जा चुके हैं हम तली तक बस उछलना शेष है,
चीर कर इस भँवर को बाहर निकलना शेष है।

नाव थी कमजोर नाविक भी जरा मदहोश था,
अब तो लहरों की दिशा में बस फिसलना शेष है।

रेत पर तपती हुई था चला नंगे पाँव ही,
साँझ होने आ गई चंदा निकलना शेष है।

आपने जैसा कहा हम जाम भरते रह गए,
कह रहे हो अब कि अब भी बर्फ गलना शेष है।

जिस भरोसे पर चले वह तो न कायम रह सका,
मित्र बतला दो कि क्या कुछ और छलना शेष है !
- ओमप्रकाश तिवारी

Wednesday, February 15, 2017

असर देखो दुआओं

न मुँह देखो दवाओं का
असर देखो दुआओं का
कई कंधे हैं बाजू में
भरोसा है तो पावों का
बगल में मुस्कराते दोस्त
हरते दर्द घावों का
पता चलता इसी दौराँ
सभी रिश्तों के भावों का
सभी फिक्रों पे है भारी
सुखन आँचल के छावों का
- ओमप्रकाश तिवारी
( 15 फरवरी, 2016)

हम खड़े हो जाएंगे


तुम गिराओ, फिर गिराओ, हम खड़े हो जाएंगे।
शौक से काटो मियाँ हम फिर बड़े हो जाएंगे ।।

चिन्गियां लाओ हवा दो डाल कर घी रात भर,
किंतु हम मिश्री की डलियाँ बिन लड़े हो जाएंगे।

हम रुई हैं जब तलक तुम हो बताशे की तरह,
तुम हुए अखरोट तो हम भी कड़े हो जाएंगे ।

सोचते हैं वो जिन्हें हो फिक्र तनिक जमीर की,
आपका क्या, आप तो चिकने घड़े हो जाएंगे।

कर सकें तो कीजिए कुछ आप दुनिया के लिए,
वरना औरों की तरह मुर्दे गड़े हो जाएंगे ।

- ओमप्रकाश तिवारी
14 फरवरी, 2016
( मित्रो, बीमारी के बाद की यह पहली रचना आज सुबह ही बन पड़ी)

Friday, January 22, 2016

तू भले पच्चास है

हाल ही में मौत ने करवा दिया अहसास है,
पास में ही हूँ खड़ी मैं तू भले पच्चास है।

एक दर्जन ब्लॉक नस में और बीपी नभ चढ़ा,
रक्तकण के बीच देवी शर्करा का वास है।

आइसीयू की मशीनें औ दवाओं की महक,
श्वेतवसना मधुरभाषी नर्स ही बस पास है।

चुक गई आधी सदी औ हाथ में कुछ भी नहीं,
भीड़ में भी रिक्तता का हो रहा आभास है।

सोचता हूँ कुछ मगर होता यहाँ कुछ और है,
सच कहूँ इंसान केवल परिस्थिति का दास है।

- ओमप्रकाश तिवारी
सुबह 10.55
17 जनवरी, 2016 (रविवार)
आईसीयू - 1, बेड नं. 07,
हीरानंदानी अस्पताल, मुंबई।  

Thursday, November 5, 2015

मौन के हथियार से

जीतिए दिल दुश्मनों का आप अपने प्यार से,
बोलने वालों से लड़िए मौन के हथियार से।
हो जहाँ नाकाम लश्कर भी सिकंदर वीर का,
जंग जीती हैं गई इक तबस्सुम की मार से ।
पीढ़ियों से धधकती ज्वाला भी बुझती है मियाँ,
आपके मीठे वचन की एक मस्त फुहार से।
जंग जीतो इस तरह कि राज सबके दिल पे हो,
बच के रहना पर हमेशा निज नजर की हार से।
वायदों के जाल में मत फांसिए आवाम को,
उससे बेहतर छवि बनेगी आपके इंकार से।
बेहिचक लड़िए झगड़िए साधिए निज स्वार्भ भी,
दीजिए तरजीह पर कर्तव्य को अधिकार से।
- ओमप्रकाश तिवारी

Friday, September 6, 2013

परजा झेले आपद्काल

राजा की थैली में माल,
परजा झेले आपद्काल ।

चले काफिलों में सरकार,
जनता को पेट्रोल मुहाल ।

जूते बनते हैं राजा के,
खींच-खींच परजा की खाल ।

काट-काट मेरी ही जेब,
परस रहे हमको ही थाल ।

मुर्ग मुसल्लम खाएं वो,
मेरी थाली पतली दाल ।

करें भरोसा किस पर आज,
बैठे हैं उल्लू हर डाल । 

Sunday, August 25, 2013

कटवा कर नाखून

कटवा कर नाखून शहीदों में लिखवाने नाम चले,
मरने की जब बात चली तो करके मियाँ सलाम चले ।

बड़ी फिक्र है राजा जी को अपने मुल्क रिआया की,
खूब बहे आँसू घड़ियाली फिर घर जाकर जाम चले ।

जिनकी शान बढ़ाने ख़ातिर अपनी जान लड़ा बैठे,
गले लगाने के बजाय वो दे करके ईनाम चले ।

हमने उम्र बिता दी मंजिल तक सबको पहुँचाने में,
मेरी मैयत छोड़ सभी जन अपने-अपने काम चले ।

एक तरफ से संबंधों की ताली रहे बजाते हम,
उनकी बारी आई तो वह देकर पूर्ण विराम चले ।

(20 अगस्त, 2013)