Sunday, June 29, 2008

मोहताज़ रिसाले

गूंगों के लिए थे कभी आवाज रिसाले
किस हाल में हैं आ गए ये आज रिसाले

हैं आंख दिखाने लगीं मिट्टी की मूरतें
गिरते थे जिनपे बनके कभी गाज रिसाले

था राज़फ़ाश ही जहां ईमान-ओ-मज़हब
कर जाते हजम आज तो हर राज़ रिसाले

क्या-क्या न सहे ज़ुल्म कि आज़ाद मुल्क हो
अब मुल्क है आज़ाद तो मोहताज़ रिसाले

जिनपर जम्हूरियत ने किया नाज़ हमेशा
हैं बिकते बनके जिंस दग़ाबाज़ रिसाले

रहबर थे,हमसफर थे,रहनुमा थे जो कभी
बदले हुए हैं आज वो अंदाज़ रिसाले

ग़र डर गया तू , तेरी रोशनाई-ओ-कलम
कब तक रहेगा सिर पे तेरे ताज़ रिसाले

नोटः वैसे तो रिसाला छोटे साप्ताहिक , पाक्षिक या मासिक पत्रों को कहा जाता है । लेकिन यहां प्रस्तुत भाव उन पत्रों के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं , जो गर्व से खुद को रोज़नामा कहते हैं ।