Sunday, April 27, 2008

आह पर वाह-वाह करते हैं

लोग यूं तो खुदा से डरते हैं
जाने क्यूं फिर गुनाह करते हैं

ख्वाब में कौन सी दुनिया लेकर
सबकी दुनिया तबाह करते हैं

जिसने ये कायनात बख़्शी है
क्या ये उससे सलाह करते हैं

कद्रदां कौन से फ़न के हैं ये
आह पर वाह-वाह करते हैं

इनकी दहशत में अश्क पी-पीकर
आप और हम निबाह करते हैं

Sunday, April 20, 2008

तेरे उलझे-उलझे बाल

कोई कहानी बता रहे हैं तेरे उलझे-उलझे बाल
हमको कितना सता रहे हैं तेरे उलझे-उलझे बाल

चुप-चुप सा है चेहरा तेरा चुप है कपड़ों की सलवट
लेकिन चुंगली लगा रहे हैं तेरे उलझे-उलझे बाल

ना-ना करती ज़ुबान तेरी ना कहती हर सुबहो-शाम
पर न्यौता दे बुला रहे हैं तेरे उलझे-उलझे बाल

थर-थर करते रुखसारों को छू लेने दो आज हमें
सह लूंगा हर सज़ा जो देंगे तेरे उलझे-उलझे बाल

मुस्काना, शर्माना , पलकों का झुक जाना धीरे से
मैं हारा इस अदा से जीते तेरे उलझे-उलझे बाल

Saturday, April 12, 2008

आप हों साथ तो ---

साथ निकले हैं तो फिर दूर तलक साथ चलें
छूट न जाए कहीं हाथ में ले हाथ चलें

वक्त काफी है कभी फिर करेंगे तकरारें
आज तो करते हुए दिल से दिल की बात चलें

यूं तो भर आते हैं पग चलके सिर्फ चार कदम
आप हों साथ तो दिल कहता है दिन रात चलें

लम्हे दो-चार सही हंस के गुजारे हमने
ज़िंदगी जाएगी कट करके उन्हें याद चलें

वह ख़ुदा है वो सुखा देखा उफ़नता दरिया
हम इधर आप उधर करते जो फरियाद चलें

इश्क था कोई दाग़ न था

समझ लिया क्यूं खुदा आपने मैं तो इतना पाक़ न था
सजा आपने दे दी जितनी उतना तो गुस्ताख़ न था

ना ना करते रहे आप भी हम भी हां तक जा न सके
लेकिन शाम ढले आ मिलना केवल इत्तेफ़ाक न था

नींद उड़ी कितनी रातों की दिन में भी बेचैन रहा
सच बोलूं इतना खोकर भी जो पाया वो ख़ाक न था

देखनेवाले देखके चेहरा जाने क्या-क्या भांप गए
इस चेहरे पर उन्हें मिला जो इश्क था कोई दाग़ न था

रुसवाई ही आप हसीनों से मेरे हिस्से आई
हम ख़ादिम हैं उफ़ करना भी हमको तो अख़लाक न था

उम्र किसने चिराग़ की देखी

उम्र किसने चिराग़ की देखी
उसने बांटी जो रोशनी देखी

देख न पाए जो किस्मत उनकी
हमने तो आफ़ताब सी देखी

ज़िंदगी चार दिन की कहते रहे
जिनकी नज़रों ने ख्वाब सी देखी

ये शहर छोड़ किधर जाएंगे
फैली शोहरत जनाब की देखी

ठग लिया हमको भरी आंखों ने
आब में जब शराब सी देखी

बात इतनी भी नहीं है

बात इतनी भी नहीं है कि बढ़ाई जाए
दिल में पाए न समा होठों पे लाई जाए

है मुहब्बत के लिए सिर्फ इशारा काफी
ये कसम तो हैं नहीं नाम से खाई जाए

नज़्म आती है लबों पर जो तुम्हारी ख़ातिर
क्या जरूरी है जमाने को सुनाई जाए

खूबसूरत है इश्क की ये तिलस्मी दुनिया
दिलजलों को भी बुलाकर के दिखाई जाए

दिल के परदे को आंसुओं से धो रहा हूं मैं
जिसपे तस्वीर तेरी खूं से बनाई जाए

Monday, April 7, 2008

बस काफी है यही दिलाशा

सुबह बंधाते हैं जो आशा ,
शाम फेकते उलटा पाशा ।

कहने वाले बहुत कह गए ,
निकला सब झांसा का झांसा ।

वही रहनुमा कहलाते अब,
आती जिन्हें झूठ की भाषा ।

लोकतंत्र में हम जीते हैं ,
बस काफी है यही दिलाशा ।

राम भरोसे देश चलेगा ,
मत आने दो पास निराशा ।