Friday, July 4, 2008

समझौतों पर रोना क्या

रोज हो रहे समझौतों पर रोना क्या
अपनी ख़ातिर मिट्टी क्या और सोना क्या

समीकरण सत्ता के रोज बदलते हैं
प्रजाजनों को पाना क्या और खोना क्या

दाल गगनचुंबी और आटा गीला है
चावल बिन ठन ठन गोपाल भगोना क्या

शाही दावत में बनजारे लूट रहे
हाथ लगे जो पत्तल क्या और दोना क्या

मुल्क पराया जान शिखंडी राज करें
बेगानेपन की शादी क्या गौना क्या

नोटः ये रचना वर्तमान राजनीतिक संदर्भों को ध्यान में रखकर पढ़ेगे तो और मजा आएगा ।

3 comments:

नीरज गोस्वामी said...

ओम जी बहुत बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है आप ने आज के हालात पर..हर शेर बहुत शिद्दत से सच बयां करता है...बहुत बहुत बधाई आपको.
नीरज

Prem Chand Sahajwala said...

आज के राजनैतिक वातावरण पर दो टूक अपनी बात कहती यह एक अच्छी ग़ज़ल है. ओम जी से ऐसी और अच्छी गजलों की प्रतीक्षा रहेगी. धन्यवाद.

Udan Tashtari said...

शाही दावत में बनजारे लूट रहे
हाथ लगे जो पत्तल क्या और दोना क्या

-आज के हालातों पर सटीक रचना.