रहनुमा चाहिए मुंह में ज़ुबान हो जिसके ,
दिल में थोड़ा ही सही पर ईमान हो जिसके ।
हम हैं तैयार बहाने को लहू भी अपना ,
सिर्फ दो बूंद पसीने की आन हो जिसके ।
हमारे साथ जो घर अपना जला सकता हो,
इस रिआया पे खुदा मेहरबान हों जिसके ।
नहीं है राम का युग ना यहां गांधी कोई ,
फिर भी दो-चार सही कद्रदान हों जिसके ।
कोई किसी को निवाले नहीं देता आकर ,
किंतु नीयत में तो अमनो-अमान हो जिसके ।
चलेगी जात-पांत बात-बुराई सारी ,
जेहन में घूमता हिंदोस्तान हो जिसके ।
(पाठक इस गज़ल में मुंबई के हिंदीभाषियों की भावना महसूस कर सकते हैं ।
Saturday, March 1, 2008
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1 comment:
कोई किसी को निवाले नहीं देता आकर ,
किंतु नीयत में तो अमनो-अमान हो जिसके
ऐसा कोई रहनुमा कहाँ मिलने वाला है मित्र! ठगे जाएंगे.
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