Saturday, April 12, 2008

इश्क था कोई दाग़ न था

समझ लिया क्यूं खुदा आपने मैं तो इतना पाक़ न था
सजा आपने दे दी जितनी उतना तो गुस्ताख़ न था

ना ना करते रहे आप भी हम भी हां तक जा न सके
लेकिन शाम ढले आ मिलना केवल इत्तेफ़ाक न था

नींद उड़ी कितनी रातों की दिन में भी बेचैन रहा
सच बोलूं इतना खोकर भी जो पाया वो ख़ाक न था

देखनेवाले देखके चेहरा जाने क्या-क्या भांप गए
इस चेहरे पर उन्हें मिला जो इश्क था कोई दाग़ न था

रुसवाई ही आप हसीनों से मेरे हिस्से आई
हम ख़ादिम हैं उफ़ करना भी हमको तो अख़लाक न था

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

ओम जी
सच कहूँ मुझे इल्म ही नहीं था की आप का ब्लॉग भी है..आज आपने सूचित किया तो देखा...शायद आपने इसे ब्लोगवाणी पर नहीं डाला है. इसीलिए ये सब की नज़रों से दूर है. एक से बढ़ कर एक बेहतरीन ग़ज़लों से सजे इस ब्लॉग को तो हर इंसान को पढ़ना चाहिए...सीधी सरल जबान में आपने जिस कुशलता से आज के हालात और इंसानी जज्बातों पर जो कलम चलाई है उसकी जितनी तारीफ करूँ कम है. अब तो आप का ब्लॉग पढ़ना रोज की आदत हो जायेगी.
नीरज